दधीचि की हड्डी और अमृत का पात्र | Lord Shiva Moral Values Story

हिमालय की पवित्र चोटियों के बीच, सतयुग में देवताओं और दानवों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ था। दानवों का नेतृत्व बलशाली और क्रूर राजा हयग्रीव कर रहा था, जिसने स्वर्गलोक पर अपना अधिपत्य जमाने का प्रयास किया। देवता युद्ध में दानवों के आगे टिक नहीं पा रहे थे।

तभी एक दिन देवताओं के गुरु बृहस्पति को देवताओं की जीत का उपाय सूझा। उन्होंने बताया कि समुद्र मंथन करके उससे निकलने वाले अमृत का सेवन करने से देवता अमर हो जाएंगे और दानवों को पराजित कर पाएंगे। समुद्र मंथन के लिए सबसे पहले मन्दराचल पर्वत को मथानी के रूप में स्थापित करना था।

लेकिन यह पर्वत इतना विशाल था कि उसे स्थिर रख पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। देवता निराश होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे। भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया और अपने गले में शेषनाग को लपेटकर मन्दराचल पर्वत के पास पहुंचे।

वहां पहुंचकर भगवान शिव ने अपने डमरू को जोर से बजाया। डमरू की गूंज से पूरा ब्रह्मांड गूंज उठा। इसके बाद उन्होंने एक वीरतापूर्ण रूप धारण किया और वानर का वेश बना लिया। अपने बलशाली वानर रूप में उन्होंने मन्दराचल पर्वत को उठाकर समुद्र के बीच में स्थापित कर दिया।

अब अगली समस्या यह थी कि मंथन के लिए दैत्यों और देवताओं के बीच मथानी चलाने के लिए रस्सी की आवश्यकता थी। देवताओं ने विचार किया कि ऐसी रस्सी कहां से लाएं जो इतने भारी मंथन को सह सके।

इसी समय महान दधीची ऋषि, जो अपने अतुल त्याग और दानशीलता के लिए स्वर्ग और पृथ्वी लोक में विख्यात थे, वहां आए। उन्होंने देवताओं की समस्या समझी और उन्हें एक अद्भुत समाधान दिया।

दधीची ऋषि ने कहा, “देवताओं! आप लोगों की जीत के लिए मैं अपना सर्वस्व अर्पित करने को तैयार हूं।” ऐसा कहकर उन्होंने गहरी समाधि ले ली और उसी क्षण उनके प्राण निकल गए।

इसके बाद उन्होंने अपने अस्थि-पंजर को खड़ा किया और कहा, “देवताओं! मेरी इन अस्थियों को ले लो। यह इतनी मजबूत हैं कि इससे आप समुद्र मंथन के लिए उत्तम रस्सी बना सकते हैं।”

देवताओं को दधीची ऋषि के इस अहैतुक त्याग को देखकर आश्चर्य हुआ और उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने दधीची ऋषि के अस्थि-पंजर को सम्मानपूर्वक लिया और उससे एक मजबूत दंड बनाया।

अब मंथन की प्रक्रिया शुरू हुई। देवताओं और दानवों ने मिलकर मन्दराचल पर्वत को दधीची ऋषि की अस्थियों से बनी रस्सी से बांधा और मंथन करना शुरू किया। हजारों वर्षों तक मंथन चलता रहा। समुद्र अमृत, विष, हलाहल, लक्ष्मी, चंद्रमा, वैशाली और कौस्तुभ मणि सहित कई अद्भुत चीजों को उगलने लगा।

समुद्र मंथन से निकलने वाले सभी पदार्थों को देवताओं और दानवों ने आपस में बांटने का फैसला किया। लेकिन जैसे ही अमृत का कलश सामने आया, दानवों ने छल करने की कोशिश की।

यह देख भगवान शिव ने तुरंत ही मोहिनी रूप धारण कर लिया। उनका यह रूप इतना मनमोहक था कि दानव मोहित होकर उनके पास चले गए। भगवान शिव ने इस अवसर का लाभ उठाया और चतुराई से सारा अमृत दे

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